क्या भारत में शिक्षा के नाम पर धर्म प्रचार की अनुमति जारी रहनी चाहिए ?

NewsBharati    20-Oct-2020 13:02:40 PM
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महाकुंभ की कई मायनों में मदरसों के साथ तुलना नहीं की जा सकती। सिद्धांत है कि दो बराबर के विषयों, व्यक्तियों, संस्थाओं आदि में ही तुलना की जा सकती है। मदरसे विद्यालय का मुखौटा पहन कर इस्लामी और जेहादी शिक्षा के केंद्र हैं। देश में करदाताओं का पैसा सिर्फ कुरान पढ़ाने पर खर्च नहीं किया जा सकता।
 
जब से असम सरकार ने सभी सरकार संचालित मदरसों और संस्कृत स्कूलों को बंद करने का ऐलान किया है, इस पर एक बहस शुरू हाे गई है। असम सरकार ने फैसला लिया है कि इन मदरसों, संस्कृत स्कूलों को हाई स्कूलों में बदल दिया जाएगा और प्राइवेट मदरसे चालू रहेंगे। असम में 610 सरकारी मदरसे हैं, जिनके लिए राज्य सरकार सालाना 260 करोड़ रुपये खर्च करती है। देश में असम, उप्र और पश्चिम बंगाल ही ऐसे तीन राज्य हैं, जहां मदरसों को सरकारें आर्थिक सहायता देती हैं। असम की भाजपा सरकार के इस फैसले को एक वर्ग मुस्लिम विराेधी बता रहा है।
 
असम सरकार के फैसले की प्रतिक्रिया में दलित नेता उदित राज ने सवाल उठाया, कि - फिर कुंभ जैसे धार्मिक कर्मकांड के आयोजन भी सरकारी पैसे से क्यों आयोजित किए जाते रहे हैं? वह आजकल कांग्रेस में हैं, लेकिन यह उनका निजी बयान था, जो बाद में ट्विटर से हटा दिया गया। अब इस विषय पर बहस छिड़ गई है कि मुसलमानों को हज के लिए सरकार करोड़ों रुपए देती है, तो महाकुंभ पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
 
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दरअसल महाकुंभ और मदरसों की तुलना नहीं की जा सकती। महाकुंभ हमारी प्राचीन, सनातन संस्कृति, आस्था और श्रद्धा के प्रतीक हैं। ये आयोजन सिर्फ हिंदुओं तक ही सीमित नहीं हैं। महाकुंभ में तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भी पधार चुके हैं और वहां ‘बुद्ध विहार’ की स्थापना में उनका विशेष योगदान रहा है। महाकुंभ में दलित व्यक्ति को भी ‘महामंडलेश्वर’ के पद पर विभूषित किया जा चुका है और पुजारी भी नियुक्त किए गए हैं। कुंभ जाति, धर्म, वर्ण और वर्ग से काफी ऊपर के आयोजन हैं।
 
2019 के कुंभ में करीब 10 लाख विदेशियों ने भी शिरकत की थी। जाहिर है कि वे सभी सैलानी ‘हिंदू’ नहीं थे। महाकुंभ की कई मायनों में मदरसों के साथ तुलना नहीं की जा सकती। सिद्धांत है कि दो बराबर के विषयों, व्यक्तियों, संस्थाओं आदि में ही तुलना की जा सकती है। मदरसे विद्यालय का मुखौटा पहन कर इस्लामी और जेहादी शिक्षा के केंद्र हैं। देश में करदाताओं का पैसा सिर्फ कुरान पढ़ाने पर खर्च नहीं किया जा सकता।
 
यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में शिक्षा के नाम पर धर्म प्रचार की अनुमति जारी रहनी चाहिए? अबोध बच्चाें काे अपने धर्म की अच्छाई और बाकी धर्मों की बुराई बताना, छोटी उम्र में ही उन्हें कट्टर बनाना दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति घृणा फैलाना कहाँ तक सही है ?
 
सवाल यह है कि मदरसे एक सामान्य, नियमित और मान्यता प्राप्त स्कूल का स्वरूप धारण क्यों नहीं करते? उनमें एनसीईआरटी की किताबें क्यों नहीं पढ़ाई जातीं? सभी मदरसों में कुरान के साथ-साथ अंग्रेजी, हिंदी, स्थानीय भाषा, गणित, विज्ञान और प्रौद्योगिकी आदि विषय क्यों नहीं पढ़ाए जाते? कुछ मदरसे अपवाद हो सकते हैं। मदरसे आधुनिकीकरण को स्वीकार करें और एक मॉडल, मॉडर्न स्कूल बनने दें। सरकार से आर्थिक मदद हासिल करें, क्योंकि शिक्षा नीति के तहत वह भी आपका अधिकार है।
 
ध्यान रहे कि प्राथमिक और बुनियादी शिक्षा 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों का मौलिक, संवैधानिक अधिकार है। देश के प्रधानमंत्री मोदी भी कई मौक़ों पर यह इच्छा जाहिर कर चुके हैं कि प्रत्येक बच्चे के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में लैपटॉप देखना चाहता हूं। यह कथन ही धर्मनिरपेक्षता की संपूर्ण परिभाषा है और प्रौद्योगिकी के प्रति जागृति का आह्वान भी है। मदरसों पर ऐसे आरोप क्यों लगें कि वे जेहादी और आतंकी पैदा करने के ही अड्डे हैं? इन सवालों का बुनियादी कारण है कि जब भी आतंकी पकड़े जाते हैं, तो उनकी पृष्ठभूमि मदरसों से जुड़ी मिलती है।
 
बहरहाल सामान्य विद्यालय और मदरसे के बीच की असमानताएं और विसंगतियां दूर क्यों नहीं की जा सकतीं? देश नई शिक्षा नीति के दौर में हैं, लिहाजा उसी के दृष्टिकोण से सोचना चाहिए कि शिक्षा कैसे दी जा सकती है और हमारे नए स्कूलों का प्रारूप और स्तर भी कैसा होना चाहिए।