भारत के स्वातंत्र आकाश का ध्रुव तारा- वीर विनायक दामोदर सावरकर

NewsBharati    28-May-2020 13:02:16 PM
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- अशोक बाबूलाल सनोठिया, से. नि. न्यायाधीश, इंदौर
 
अंग्रेज़ो की यह मिथ्याचारि और घमंडी,गर्वोक्ति भरी घोषणा की अंग्रेज़ो के साम्राज्य में कभी सूर्य नही डूबता है।उसी दास्तां, परतंत्रता, शोषण ,फुट डालो और राज करो, लंदन के राजा -रानियों के अधीन गुलाम भारत में भारत के महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले के ग्राम भगूर में 28 मई 1883 को सोमवार के दिन प्रातः 10 बजे विनायक दामोदर सावरकर का जन्म हुआ। भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि अनंत ब्रह्मांड में पुनर्जन्म की मान्यता के अनुसार जो पवित्र आत्माए विचरण करती है वे किसी महान लक्ष्य,महान संकल्प,और महान कर्तव्य कर्म पूर्ण करने के लिए शरीर धारण करती है उसी प्रकार अंतरिक्ष मे दुष्ट आत्माए भी विचरण करती है और वे भी शरीर धारण करके पावन और देदीप्यमान व्यक्तित्वों को आयुपर्यन्त व देहावसान के पश्चात भी अपनी कुटिलता,पाशविकता व घ्रणित बुद्धि के सहयोग से कलंकित व छबिहत्या में निरंतर सलग्न रहते है ।
 
तो बंधुओ हम जिस व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे है और अनुग्रहत व गौरांवित हो रहे है वीर विनायक दामोदर सावरकर का कुल खानदान, उनका वंश देखिए। विनायक का जन्म जिस ब्राह्मण कुल में हुआ था उस कुल में इससे पहले और बाद में भी देश भक्त महान पुरूषों ने जन्म लेकर भारत माँ की सेवा में अपना सर्वस्व न्योछावर किया ।इनमे उल्लेखनीय नाम है मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ ,1857 के स्वतंत्रता सेनानी नाना साहिब ,वासुदेव बलवंत फड़के, चापेकर बंधु ,महादेव गोविंद रानाडे ,लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और आगे के क्रम में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसी वर्तमान में अंतराष्ट्रीय संस्था की स्थापना करने वाले डॉ. केशव राव बलिराम हेडगेवार ।इस प्रकार की विरद वंशावली में अवतरण और प्राकट्य हुआ विनायक दामोदर सावरकर का ।सावरकर जी की आजन्म तेजस्विता, प्रखरता ,अदम्य वीरोचित साहस सम्पूर्ण ब्रह्मांड से अकेले ही अपने बुद्धि बल देश भक्ति ,राष्ट्र गौरव और राष्ट वैभव की पुनीत भावना का जो सागर उनके हृदय में और वैचारिक क्रांति के रूप में जो हिलोरे लेता था उसका कारण कुल वंश परंपरा तो रहा ही होगा लेकिन मूल में एक विशेष कारण भी रहा होगा। वीर सावरकर के पूर्वज मह श्री परशुराम जी की लीला स्थली कोंकण रही है और संभवतः इसी कारण यह वीर सावरकर चित्तपावन ब्राह्मण ने परशुराम की तरह ही यह प्रतिज्ञा करि होगी कि मेरी मात्र भूमि को दास्तां की जंजीरों में जकड़ ने वाले अंग्रेज़ो का सम्पूर्ण साम्राज्य भारत वर्ष से नष्ट कर दूंगा।1857 के समर उस क्रांति का कोई योद्धा कोई हुतात्मा सावरकर जी के रूप में पुनः इससे भारत भूमि पर अपना शेष बचा हुआ अभियान पूरा करने के लिए अवतरित हुए था । 

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सावरकर जी का पूरा जीवन व्रत एक आलेख,एक पुस्तक अथवा एक नाटक में पूर्ण करना अथवा उसे समेटना नितांत असंभव है लेकिन हम उनके जन्म दिवस पर उनके द्वारा किये गए अद्भुत पराक्रम क्रांतिकारी सोच ऐसी निर्भयता,ऐसा दिव्य आत्मीय बल जो घोर क्रूर और अत्याचारी शाशको की आँखों मे आंखे डाल कर और उनके अपने घर लंदन में ही अपना सीना तान कर विरोध कर सके ऐसी ईश्वरीय चेतना को हम प्रणाम करते हुए उसकी वंदना तो कर ही सकते है और यह तो हर राष्ट्रवादी भारतीय को प्रत्येक भारतीय को वीर सावरकर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा लेते हुए हृदय से उनकी वंदना करनी ही चाहिए। आइये वीर सावरकर जी के ऐसे जीवंत प्रसंग जो पूरी दुनिया जानती है पर शायद भारत की युवा पीढ़ी ही अनजान है। और यह अंग्रेज़ो के द्वारा व कुछ अंग्रेजो से प्रभावित भारतीयों द्वारा बनाई गई और स्थापित मैकाले शिक्षा पध्दति को इसका कुश्रेय जाता है।आज कोरोना संकट काल मे जो स्वदेशी और आत्म निर्भरता की बात आज भारत मे बड़ी अनुकरणीय व चर्चा का विषय है वह कार्य सावरकर जी 7 अक्टूबर 1905 को पुना में कर चुके थे, दशहरे के दिन सावरकर जी ने विदेशी वस्तुओ और समान की होली का दहन कार्यक्रम की अध्यक्षता बाल गंगा धर तिलक ने की थी 1/7/1905 को एक विशाल जन सभा भी इसी कार्य के लिए की गई थी। विदेशी राज्य के सेवा निवृत्त उच्च अधिकारी ए.ओ.ह्यूम जिसके द्वारा भारत मे कांग्रेस की स्थापन की गई थी, और आज़ाद भारत मे भी उसी कांग्रेस की आदरणीय विदेशी भाभीजी, लगभग 15वर्ष कांग्रेस की अध्यक्षा रही है।
 
उस कांग्रेस की पत्रिका 'इंदु प्रकाश' ने विदेशी वस्त्र एवं समान का बहिष्कार एवं उनकी होली जलाने के इस कार्य की भर्त्सना करते हुए सावरकर के बारे में अनर्गल बाते प्रकाशित करते हुए सावरकर की कठोर आलोचना की थी, इस कारण जिस कॉलेज में सावरकर जी पढ़ते थे उसके प्राचार्य आर.पी.परांजपे ने दस रुपए जुर्माना लगाते हुए कॉलेज से निकाले जाने का आदेश जारी कर दिया था। यह घटना पूरे विश्व में चर्चा का विषय बनी,अनेक लोगों ने दंड कि राशि भेजना प्रारंभ किया सावरकर जी ने यह जुर्माना अपनी जेब से भुगत लिया और जो भी धन उन्हें प्राप्त हुआ था उसे श्रमिकों के हित के लिए पैसा फंड में जमा करवा दिया था।महात्मा गांधी उस समय में अफ्रीका में थे और वहीं से उन्होंने बहिष्कार को घृणा और हिंसा का आधार मानते हुए आलोचना की थी। कथनी और करनी का फ़र्क देखिए सत्रह वर्ष बाद 1921 को असहयोग आंदोलन के समय गांधी जी ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाई थी।विनायक दामोदर सावरकर जी लंदन में लोकमान्य तिलक जी की सिफारिश पर बैरिस्टर बनने के लिए कानून की पढ़ाई करने गए थे,लेकिन उनका मन, बुद्धि और शरीर तो भारत मां की आज़ादी के लिए व्याकुल, व्यथित एवं व्यग्र था।
 
जहां मोती लाला नेहरू जी जिनकी अंग्रेजो के साथ बड़ी रस्मो राह थी, के सुपुत्र जवाहर लाल जी नेहरू ने अपने पिता के पैसों के दम पर कैम्ब्रिज में और लंदन में अंग्रेज़ो की जीवन शैली और उनकी मानसिकता को अपनाने के लिए अपना अधिकाधिक समय लगा रहे थे,उनकी कारो का और फैशनेबल कपड़ों का प्रसंग की चर्चा फिर कभी करेंगे। जीस लंदन में भारत के गुलामी में भी दासता स्वीकार किए हुए राजा महाराजाओं के पुत्र पुत्रियां भी विलासिता में लीन थे। और जहां थैंक यू ,सॉरी, प्लीज,एक्सक्यूज़ मी के लहज़े सीख रहे थे , वही हमारे भारत वर्ष का वीर शिरोमणि विनायक दामोदर सावरकर अपनी मन में उमड़ती क्रांति की ज्वाला को अपने विचारों की अग्नि से तपा रहा था,और अंग्रेज़ो की छाती लंदन पे भारत देश की अज़ादी के लिए क्रांति और क्रांतिकारी तैयार कर रहे थे। सावरकर के कुल चित्त पवन महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण समाज के पूर्वज साधु विष्णु दत्त गोडसे जिन्होंने 1857 के समर को प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखा था, और यह विद्वान उसका सारा वृतांत अपनी डायरी और पोथियों में लिखता रहा, और फिर बाद में इस पर एक पुस्तक लिखी जिससे प्रभावित व प्रकाशित हो कर वीर सावरकर ने 1857 के स्वातंत्र समर की पचासवीं वर्ष गांठ लंदन में उन अंग्रेज़ो के सामने मनाई जिनके हम गुलाम थे।सावरकर ने गहन ,अध्यन व शोध करके प्रामाणिक रूप से यह सिद्ध किया और पूरे विश्व को अंग्रेज़ो के पाखंड और झूठ का पर्दा फाश करते हुए उन्होंने मराठी भाषा मे पुस्तक लिखी
 
"सत्तावनचेंस्वातंत्र्यसमर" जो '1857 का स्वातंत्र समर ' के नाम से हिंदी में प्रकाशित हुई, और विश्व की अनेक भाषाओ में भी प्रकाशित हुई। किन्तु विश्व ने, भारत ने यह अजूबा देखा और अंग्रेज़ो की क्रूर एवं शोषण नीति देखी की इस पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही अंग्रेज़ सरकार ने इसे प्रतिबंधित 'बैन' कर दिया था। और जो पहले कभी नही हुआ और जो आज तक भी नही हुआ वह अंग्रेज़ो ने किया , पांडुलिपि व पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आगे चल कर इस पुस्तक की पांडुलिपि भगतसिंह को प्राप्त हुई,जिससे पढ़ कर भगतसिंह ने प्रभावित हो इस किताब को बड़ी गोपनीयता से छपवाकर क्रांतिकारियों में बटवाई,कुछ ही समय मे यह किताब देशभक्त क्रांतिकारियों की ' गीता' बन गयी।उसकी दुर्लभ प्रति को कहीं से खोज पाना सौभाग्य माना जाता था। उसकी एक-एक प्रति गुप्त रूप से एक हाथ से दूसरे हाँथ होती हुई अनेक अन्तः कारणों में क्रांति की ज्वाला सुलगा जाती थी।
 
आगे चलकर अंडमान निकोबार ,काले पानी ,सेलुलर जेल की कठोरतम यातना, जो विश्व मे प्रथम बार एक व्यक्ति को अर्थात सावरकर जी को 2 आजन्म कारावास अर्थात 50 वर्ष की सज़ा कठोरतम श्रम के साथ भुगतने के लिए 4 जुलाई 1911 महाराजा नामक समुद्री जहाज से कालापानी भेज गया था। कालापानी की उस भीषण अट्टालिकाओं में कोयले से,पत्थरो से अपने मन मे उमड़ने वाले क्रांति के,धर्म की रक्षा के विचारों को सावरकर जेल की दीवारों पर लिख कर उसे कंठस्थ याद किया करते थे । भारत के 3 बार प्रधानमंत्री चुने गए ओजस्वी नेता व वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी ने विनायक दामोदर सावरकर के व्यक्तित्व के बारे में अपने मन के उद्गार जो उनकी हृदय की गहराइयों से पूना में निकले थे वह ऐसे ही नही व्यक्त हो गए थे उसके पीछे सावरकर जी का सम्पूर्ण जीवन का संघर्ष,त्याग,तपस्या,निर्भयता,समर्पण राष्ट भक्ति का भाव था ।अटल जी को यह तथ्य ध्यान में और मस्तिष्क में रहा होगा कैदियों को उनके सीने पर लगाए जाने वाले बिल्ले पर बंदी होने का दिवस और कारागार से मुक्त होने का दिवस 4 जुलाई 1911 को जो बिल्ला सावरकर जी की छाती पर लगाया गया था उस पर मुक्ति का दिवस 1911 से 1960 लिखा था। जेलर ने यह तिथि दोहराई तब सावरकर जी ने पलटकर जवाब दिया "क्या सन 1960 तक अंग्रेज़ सरकार भारत मे रहेगी?" और दुनिया ने देखा 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी साम्राज्य का सितारा डूब गया लेकिन विभाजन और लाखों हिंदुओं की लाशों पर दुखद विभीषिका के साथ अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था :-
 
"सावरकर माने तेज,
सावरकर माने त्याग,
सावरकर माने तप,
सावरकर माने तर्क,
सावरकर माने तत्व,
सावरकर माने तारुण्य,
सावरकर माने तीर,
सावरकर माने तलवार,
सावरकर माने तिलमिलाहट,
सागरा प्राण तनमडला।"
 
धन्य है अटलजी जिन्होंने सावरकर जी का समस्त जीवन दर्शन इन शब्दों में व्यक्त कर दिया । और हो भी क्यो ना, जिस आज़ाद भारत के रथी, महारथी ,अतिरथी शाशको ने जो अंग्रेजियत में ही रचे बसे थे उन्होंने आज़ादी के बाद भी सावरकर जी को भारतीय जेल में बंद करने का कोई अवसर नही चुका ।जवाहर लाल नेहरू भरी सभाओ में भावुक होने का पाखंड कर रहे थे,ढोंग कर रहे थे ,आंसू बहाने का नाटक कर रहे थे। उज्जैन जिले के बड़नगर तहसील में जन्मे कवि प्रदीप के गीत जो लता जी ने गाया:- "ऐ मेरे वतन के लोगो ज़रा याद करो कुर्बानी" ,देश से भावुकता पर नेहरू जी तालिया पिटवा रहे थे और दूसरी तरफ आज़ादी के उस वीर सावरकर को आज़ाद भारत मे बार बार जेल भेज रहे थे,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक श्री सदाशिव माधव राव गुरुजी गोलवलकर को जेल भेज रहे थे।हिंदुत्व पर प्रतिबंध लगा रहे थे। नेहरू जी ने एक बार कहा था कि "में सावरकर के इस भगवा विचार के लिए भारत की भूमि का एक इंच टुकड़ा भी नही दूँगा" परंतु समय साक्षी है, नेहरू जी कहै शब्द सिर्फ शब्द ही रह गए पर इस भगवा दर्शन , भगवा विचार को भारतीय जन मानस से ना कोई निकाल पाया और ना कोई निकाल सकता है। हर दौर , हर समय मे कोई सावरकर,कोई हेडगेवार पैदा होते रहेंगे जो अपना जीवन देकर इस हिंदुत्व और भगवे की 'लौ' को चिंगारी देते रहेगें। सावरकर जी पर कहने को, बताने को ,आपके पढ़ने व सुनने को जानने को इतना कुछ है लेकिन इस आलेख की कुछ सीमा है यह भी अनुरोध करना चाहूंगा अपने देशवासियो से की नेहरू परिवार,गांधी जी का देश के स्वातंत्र में कम योगदान नही है ,उनकी महत्ता और महत्व भी कम नही है, लेकिन केवल वे ही और वे ही नही है।जैसा कि पिछले सत्तर वर्षो में देश को पढ़ाया, सुनाया और दिखाया गया है।क्योकि आज़ादी जैसी कीमती वस्तु बिना संघर्षों के नहीं प्राप्त होती।और कवि कहते है की
 
"आज़ादी के चरणें में जो,
जयमाल चढ़ाई जाती है।
वह सुनो, आज़ादी के मतवालों के शीशों के
फूलों से गूँथी जाती है।
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

 
देश के स्वातंत्र समर के आकाश पर विनायक दामोदर सावरकर ध्रुव तारे के समान जड़े हुए है।सभी देशवासियों की ओर से और मेरी ओर से सावरकर जी को कोटि कोटि नमन। उस देश मे जहां सैफ़ अली खान पद्मश्री,जावेद अख्तर पद्मभूषण व इनके जैसे अनेकानेक तमगे लिए घूम रहे है और इस कोरोना काल मे इन्ही के समाज के कुछ भटके लोग डॉक्टरों को मार रहे है,पथराव कर रहे है, नर्सों को जिन्हें सिस्टर्स कहा जाता है उन पर थुक रहे है ,देश और विश्व देख रहा है की देश मे संकट काल मे भी कुछ लोग ऐसी हरकतें कर सावरकर जी, गोलवलकर जी, हेडगेवार जी, दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की वाणी और विचार को सही सिद्ध कर रहे है। सावरकर जी के इस विचार से अवगत होते हुए आइये विदा ले:-" मातृभूमि!तेरे चरणों मे पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूं। अब मेरा वक्तृत्व, वाग्वैभव, मेरी नई कविता,सभी कुछ तेरे चरणों में समर्पित है।मेरे लेखों पर कोई अन्य विषय नही हैं- अपना तन, मन, धन, यौवन सभी तुझ पर वार चुका हूं। देश सेवा में ही ईश सेवा है , यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की। इसी पवित्र अग्नि में मैं अपनी भाभी,पुत्र,पत्नी और बड़े भाई को भी भेंट कर चुका हूं और अब स्वयं समर्पण के लिए प्रस्तुत हूं किन्तु यह तो कुछ भी नहीं, यदि हम सात भाई भी होते तो उन सबका बलिदान तेरे ही चरणों मे होता।"