जनजातियों के राम

NewsBharati    30-Jul-2020 13:28:15 PM
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भगवान श्रीराम के प्रति आस्था तो पूरे भारतवर्ष में सब जगह है परंतु जनजाति समाज खासकर छत्तीसगढ़ में निवास करने वाले जनजाति समाज में तो श्री राम के प्रति आस्था और विश्वास अतुलनीय है। मेरा इसका अनुभव पहली बार तब हुआ जब मेरा 1993 में धमतरी जिला (उस समय के रायपुर जिला हुआ करता था) के ग्राम सिरसिदा में एक पारिवारिक कार्यक्रम में जाना हुआ, रात में पहुंचे तो सो गये। सुबह उठकर स्नान किया तो सगा- संबंधियों ने कहा कहा कि जाओ सबसे पहले श्रृंगी ऋषि पर्वत में आश्रम और महानदी उद्गम स्थल के दर्शन करके आओ। उस समय मेरी किशोरावस्था थी, हर चीज जानने की इच्छा होती थी। महानदी के बारे में तो सुना था, पढ़ा था, देखा था परंतु श्रृंगी ऋषि यह नाम नया था तो रिश्तेदारों से पूछा कि ये श्रृंगी ऋषि कौन हैं? तब उन्होंने बताया कि हमारे आराध्य भगवान श्रीराम को धरती पर अवतरित करने के लिए हुये पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाने वाले महात्मा हैं श्रृंगी ऋषि और यहीं नजदीक में ही ऊंचा पर्वत जिसे श्रृंगी ऋषि पर्वत कहते हैं वही उनका आश्रम है। श्रृंगी ऋषि पर्वत से ही महानदी निकलती हैं।


वास्तव में छत्तीसगढ़ के कण-कण में भगवान श्रीराम विराजमान हैं। इसका मुख्य कारण रामायणकालीन चार पात्रों का सीधा संबंध हमारे छत्तीसगढ़ से होना है। मान्यता है की माता कौशल्या का जन्म रायपुर जिले में ही आरंग के नजदीक ग्राम चंदखुरी में हुआ था, इस नाते छत्तीसगढ़वासी श्री राम को अपना भांजा मानते हैं। श्रीराम के कारण ही पूरे छत्तीसगढ़ में भांजे का नाम नहीं लिया जाता, अपने भांजे को प्रणाम किया जाता है तथा जीवन के अंतिम चरण में भांजे का चरणामृत प्राप्त हो जाये तो इसे सद्गति का मार्ग माना जाता है।


इसी तरह मान्यता है कि विवाह उपरांत राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति नहीं हो रही थी तो माता कौशल्या के मायके वालों ने अयोध्या खबर भिजवाया कि हमारे यहां महात्मा श्रृंगी ऋषि हैं जिनके द्वारा करवाया गया पुत्रेष्ठि यज्ञ कभी असफल नहीं होता। यह खबर सुनकर राजा दशरथ ने महात्मा श्रृंगी ऋषि को तुरंत अयोध्या बुलवाया और पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया, इसके फलस्वरूप ही राजा दशरथ को राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चार परम प्रतापी पुत्र में हुये।


एक और मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम को जब 14 वर्ष का वनवास हुआ तो इनमें से लगभग 10 वर्ग उन्होंने यही व्यतीत किया। त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोशल और दंडकारण्य था।भगवान श्री राम अपने वनवास के समय भरतपुर कोरिया जिला के सीतामढ़ी-हरचौका से प्रवेश करते हुए सरगुजा के रामगढ़, फिर वहां से शिवरीनारायण पहुंचे शिवरीनारायण में उन्होंने माता शबरी के झूठे बेर खाए। छत्तीसगढ़ में आज भी संवर-सांवरा जनजाति के लोग अपने आप को माता शबरी का वंशज मानते हैं और भगवान श्रीराम सहित माता शबरी का पूजन करते हैं।


महर्षि वाल्मीकि का आश्रम भी बलौदाबाजार जिला के तुरतुरिया में ही है। वनवास के दौरान कुछ समय के लिए भगवान श्रीराम यहां भी आए थे। पुरानी मान्यताओं के अनुसार लव कुश की जन्म स्थली भी तुरतुरिया ही है। इसके पश्चात वनवास में वनगमन के दौरान भगवान श्रीराम राजिम, श्रृंगी ऋषि आश्रम, कांकेर के कंक ऋषि आश्रम से नारायणपुर होते हुए सुकमा के रामाराम और इंजराम होते हुए दक्षिण भारत में प्रवेश किये थे। दस वर्षों तक जनजाति समाज के साथ रहने के कारण ही उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम भी कहा जाता है।


छत्तीसगढ़ और जनजाति समाज में श्रीराम से जुड़ी बहुत सी मान्यताएं हैं। आज भी छत्तीसगढ़ के जनजाति ग्रामीण क्षेत्रों में अभिवादन 'राम-राम' से होता है। जब भी कोई नया फसल आता है तो उसकी पहली पायली (एक नाप का नाम है) राम कोठी की होती है। फसल को नापते समय गिनती राम, दो, तीन, चार से चालू होती है इसके अलावा आज भी जनजाति ग्रामीण क्षेत्रों में श्रीराम से जुड़ी रामचरितमानस का पठन-पाठन और रामचरितमानस गान प्रतियोगिता का आयोजन गांव-गांव में होता है। मनुष्य की अंतिम यात्रा भी राम नाम सत्य है पर समाप्त होती है अतः हम कर सकते हैं की जनजाति समाज में श्रीराम का गहरा प्रभाव है।

- विकास मरकाम 
{लेखक छतीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष हैं )