तृणमूल कांग्रेस करती है इस्लामिक आक्रांता टीपू सुल्तान का गुणगान, लेकिन अहिंसक जैनों का तिरस्कार ....

आज यह जानना अपरिहार्य हो गया है कि हमारे देश ने पहले से ही क्या क्या सहन किया हुआ है, ताकि हम स्वनिर्मित बंधनों में ही फंसने के बजाय एक उज्ज्वल भविष्य का सृजन कर सकें। यही अवसर है कि हम वैज्ञानिक और व्यापक रूप से इतिहास का अध्ययन करें।

NewsBharati    11-Feb-2022 16:26:41 PM   
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तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने 3 फरवरी 2022 को लोकसभा में अपने संसदीय भाषण में आरोप लगाया कि सरकार इतिहास बदलना चाहती है| उन्होंने अपने इस भाषण में कहा, "नेताजी की इंडियन नेशनल आर्मी का प्रतीक चिन्ह टीपू सुल्तान का दहाड़ता हुआ बाघ (स्प्रिंगिंग टाइगर) था -  वही टीपू सुल्तान जिसे आप हमारी पाठ्यपुस्तकों से मिटाना चाहते हैं, जिनके नाम पर आप खेल स्टेडियमों या सड़कों का नाम सहन नहीं कर सकते हैं।"
 

Mahua 
 
यदि इतिहास और तथ्यों का सूक्ष्मता के साथ अध्ययन और जांच की जाए तब उनका यह तर्क या यूँ कहें अनुमान खोखला सिद्ध होता हुआ दिखाई देता है |
 
मार्क्सवादी इतिहासकारों ने एक झूठ फैलाया जिसके अनुसार 'काफिरों' के स्वघोषित 'विनाशक' आक्रांता टीपू को एक सदी से सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता था| दुर्भाग्य से 'यही तो खुबसूरती है इस देश की' इस कहावत में एक दर्दनाक सच्चाई छुपी हुई है।  अमरिकी दार्शनिक जॉर्ज सांतायाना के अनुसार , 'जो लोग अतीत से नहीं सीखते हैं, उन्हें उसी को दोहराकर दंडित किया जाता है" | इसलिए, इसके अनुसार यही उचित अवसर है कि टीपू सुल्तान के शासनकाल का व्यापक रूप से मूल्यांकन किया जाए, और सच्चाई को खंगाला जाए | 
 
टीपू सुलतान की धार्मिक कट्टरता और उसके आतंक भरे शासनकाल के लिए टीपू के अतिरिक्त किसी अन्य स्रोत की आवश्यकता नहीं है। आगे डब्ल्यू किर्कपैट्रिक (1811) द्वारा लिखित 'सिलेक्टेड लेटर्स ऑफ़ टीपू सुलतान' के कुछ अंश दिए गए हैं, जिससे उसका आतंक साफ़ साबित होता है :
 
1.  टीपू सुल्तान का घोषणापत्र यह कहता है -  "जो कोई भी इस पत्र का पालन करने से इनकार करता है, उसे एक तुच्छ  काफिर  माना जाएगा, और बाक़ी मुसलमानों को जिहाद' के तहत इन काफिरों का धर्मपरिवर्तन करने के लिए एक साथ आना चाहिए।
 
2. अब्दुल कादिर को लिखे एक पत्र में टीपू ने लिखा है -  "12,000 से अधिक हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित किया गया है | उनमें से कई नंबूदरी ब्राह्मण हैं | इस उपलब्धि का हिंदुओं के बीच व्यापक रूप से प्रचार किया जाना चाहिए, और स्थानीय हिंदुओं को भी सामने लाते हुए इस्लाम में धर्मांतरित किया जाना चाहिए। नंबूदरी ब्राह्मणों को तो बिलकुल भी बख्शा नहीं जाना चाहिए।'
 
3. जुमन खान को लिखे पत्रों में लिखा मिलता है : "आपने उनमें से एक सौ पैंतीस का खतना करके बहुत अच्छा काम किया |किल्लूर के किले को ध्वस्त कर दो। सल्तनत को परेशान करने वालों को गिरफ्तार कर लो, और उन्हें अहमदियों के साथ शामिल करो अर्थात उन्हें भी मुसलमान बनाओ। "
 
4. कालीकट में सेनापति को लिखे एक पत्र में लिखा है -  "मैं मीर हुसैन अली के साथ अपने दो शागिर्दों को भेज रहा हूँ । उनकी सहायता से आप को सभी हिंदुओं को पकड़ना और मार देना चाहिए। 20 वर्ष से कम उम्र के लोगों को जेल में रखा जा सकता है, और बाकी के 5,000 को मौत के घाट उतार दिया जाए। यह मेरा हुक्म है।"
 
5. रणमस्त खान को लिखे एक पत्र में टीपू गर्व से कहता है कि -  "हालात को देखते हुए हम तेज़ी से आगे बढ़े और एक ही  बार में चालीस हजार लोगों को कैदी बनाकर अपनी अहमदी सेना में शामिल कर लिया ।"
 
टीपू का धार्मिक ज़ेनोफोबिया न केवल हिंदुओं के प्रति प्रत्युत बल्कि ईसाइयों के प्रति भी था:
 
1. चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में 1799 में टीपू की मृत्यु और उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टन के अंग्रेजों के पास चले जाने के बाद, कर्नल विलियम किर्कपैट्रिक को टीपू की लिखावट में उसके महल में दो हजार से अधिक पत्र मिले थे। टीपू इन पत्रों में हिंदुओं को 'काफिर' और अंग्रेजों को 'ईसाई' लिखता था, जिन्हे (हिन्दू और ईसाई) भारत में इस्लाम के शासन को मजबूत करने के लिए मिटाना जरूरी था।
 
2. एक पुर्तगाली यात्री फ्रा बार्टोलोमोईयो ने 1790 में टीपू के अभियान के दौर में 'ऐ वॉयज टू दी ईस्ट इंडीज' में लिखा है, "टीपू एक हाथी पर सवार था जिसके पीछे 30,000 सैनिकों की एक और सेना थी। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और महिलाओं को सूली पर लटका दिया गया था। माताओं को उनके बच्चों को गले में बांधकर फांसी पर लटकाया गया था। उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नग्न ईसाइयों और हिंदुओं को हाथियों के पैरों से बंधवाया था और हाथियों को तब तक घुमाया जब तक कि असहाय पीड़ितों के शरीर टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए।"
 
 
Tipu 
 
अमरिकी इतिहासकार विल ड्यूरंट ने ठीक ही कहा था, "भारत पर इस्लामिक विजय कदाचित इतिहास की सबसे रक्तंजित कहानी है।" अनेक यूरोपीय देशों में नरसंहार का निषेध करना एक अपराध माना जाता है और न्याय व्यवस्था के अंतर्गत अभियोग चलाया जा सकता है। इस पार्क्याश्वभूमी पर क्या मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि टीपू समर्थकों और होलोकॉस्ट का निषेध करने वालों के बीच कोई अंतर नहीं है? अर्थात दोनों एक समान हैं।
 
तदतिरिक्त, महुआ मोइत्रा जैसे क्षणिक सांसद, हमें टीपू सुल्तानों के नाम पर सड़कों का नामकरण करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ताकि इन आक्रांताओं के कुकर्मों पर पर्दा डाला जा सके और हिंदू समाज के उत्पीड़न के अपमान का जश्न मनाया जा सके।
इसके अतिरिक्त, महुआ मोइत्रा ने प्रधानमंत्री मोदी पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर लगाम लगाने का आरोप लगाते हुए कहा, "आप भविष्य के ऐसे भारत से डरते हैं जो अपने आप में सहज है, जो परस्पर विरोधी वास्तविकताओं के साथ सहज है। तो आप एक ऐसे भारत से भयभीत हैं जहां एक जैन लड़का घर से भाग सकता है और अहमदाबाद में एक ठेले पर काठी कबाब खा सकता है। इसलिए आप गुजरात की नगरपालिकाओं में मांसाहारी स्ट्रीट फूड पर रोक लगाते हैं।"
 
जब बंगाल से आने वाली महुआ मोइत्रा जैसी टीएमसी की सांसद एक आक्रांता और घोषित कट्टरपंथी की प्रशंसा करती है तब वह जैन धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का अपमान करती हैं, वह जैन धर्म जिसकी स्थापना भारत में वर्धमान महावीर द्वारा की गयी थी और जो एक समय बंगाल में फलता फूलता था। पुरातात्विक अवशेषों से आज भी पता चलता है कि जैन धर्म बंगाल में एक जीवंत और व्याप्त धर्म था और बंगाल महावीर के जीवनकाल के दौरान जैन धर्म की शुरुआत साक्षी था।
 
जैन धर्म, सभी जीवंत प्राणियों के प्रति दयालुता का भाव रखता है, जिसके कारण यह जैनियों को स्पष्ट रूप से हिंसा से दूर रखता है, इसी के परिणामस्वरूप जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा शाकाहार का पालन किया जाता है। जैन मत के अनुसार अहिंसक जीवन (जिसमें जीवन के अन्य रूपों पर जितना संभव हो उतना कम नकारात्मक प्रभाव पड़ता है) व्यतीत करने से मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। यहाँ तक कि, प्यू रिसर्च के अनुसार, लगभग दस में से नौ भारतीय जैन (92%) शाकाहारी के रूप में पहचाने जाते हैं, और दो-तिहाई जैन (67%) अहिंसा का पालन करने के लिए लहसुन और प्याज जैसी सब्जियों का भोजन में उपयोग नहीं करते हैं। इनका आत्म-अनुशासन यहीं पर ही समाप्त नहीं होता है। जैनियों का आहार संबंधी व्यवहार घर के बाहर भी चलता है जिसके अनुसार दस में से आठ जैन शाकाहारियों का यह भी कहना है कि वे किसी ऐसे मित्र या पड़ोसी के घर में भोजन नहीं खाते जो मांसाहारी (84%) है और न ही ऐसे किसी होटल या रेस्तरां में जो मांसाहारी भोजन (91%) परोसता है।
 
यह भी मत है कि जैनियों में हिंदुओं के साथ बहुत समानताएं हैं और यह 2005में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के साथ सिद्ध भी होता है, "जैन धर्म, सिख धर्म और बौद्ध धर्म अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन ये सभी हिंदू धर्म से परस्पर जुड़े हुए हैं और परस्पर संबंधित हैं, इसलिए ये तीनों व्यापक रूप से विशाल हिंदू धर्म का भाग हैं...।"
 
महुआ का अपने कुटिल राजनीतिक लाभ के लिए यह कहना कि जैन लोग 'गुप्त रूप से' मांसाहारी भोजन का आनंद लेते हैं, यह न केवल जैन समुदाय की भावनाओं को आहत करने का घृणित प्रयास है, बल्कि इसने भगवान महावीर (जिन्होंने मोक्ष की कुंजी के रूप में आत्म-अनुशासन और तपस्वी जीवन के महत्व पर जोर दिया था) द्वारा पोषित और संवंर्धित मूल्यों का तिरस्कार  भी है।
 
उपरोक्त दोनो प्रकरण हमें ध्यान दिलाते हैं कि हम वास्तविकता से कितने दूर हैं, लेकिन दोष देने के लिए महुआ मोइत्रा यहाँ अकेले नहीं हैं। भारत में रहने वाले वामपंथियों, कम्युनिस्टों, मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और नेहरूवादी-पंथनिरपेक्ष इतिहासकारों द्वारा दशकों के जबरदस्त प्रयासों और मूल रूप से, सोल्ज़ेनित्सिन सिंड्रोम से प्रभावित इन सभी लोगों ने ख्यात 'सेक्युलर राजा' टीपू सुल्तान के रक्तरंजित शासनकाल पर पर्दा डालकर स्वच्छ बना दिया है। यह काम आज कई राजनेताओं, नवोदित्त 'इतिहासकारों' और डिजिटल समाचार पोर्टलों को प्रेषित किया गया है जो ऐतिहासिक वास्तविकताओं पर मिटटी डालकर उन्हें काल्पनिक कथानकों के रूप में प्रस्तुत करने में हस्तसिद्ध हैं।
 
इस गैंग द्वारा नियमित रूप से इस प्रकार से स्मरण कराने के तीन प्रयोजन हैं। पहला प्रयोजन, इससे हिंदू हमेशा के लिए उपहासपूर्ण, आत्म-घृणा, दुर्बलता और हीन भावन से ग्रसित रहते हैं। दूसरा, ऐतिहासिक अन्यायों का महिमामंडन और टीपू तथा उसके जैसे आक्रांताओं का गुणगान प्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम समुदाय के वोटों को प्रभावित करता है। और तीसरा, इन मतान्ध आक्रांताओं और अत्याचारियों के प्रचुर मात्रा में कुकर्मों के विवरण उपलब्ध होने के बावजूद भी बार-बार घृणित अतीत का स्मरण कराता है।
 
स्वयं की कमजोरियों और अनेक कारणों से हम लोग अपने स्वयं के इतिहास के बारे में नहीं जानते हैं। हम निरंतर सत्य की खोज करने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन यह अंधेरे कमरे में बिल्ली पकड़ने के प्रयास जैसा है। आज यह जानना अपरिहार्य हो गया है कि हमारे देश ने पहले से ही क्या क्या सहन किया हुआ है, ताकि हम स्वनिर्मित बंधनों में ही फंसने के बजाय एक उज्ज्वल भविष्य का सृजन कर सकें। जैसा कि प्रसिद्ध वाक्य है, 'क्या कुछ लोगों का मन रखने के लिए इतिहास को पुनः लिखा जाना चाहिए ? फिर यह इतिहास नहीं बल्कि मनोचिकित्सा है।" यह सुअवसर है कि हम वैज्ञानिक और व्यापक रूप से इतिहास का अध्ययन करें।

Yuvraj Pokharna

Yuvraj Pokharna is a Surat-based educator, columnist, and social activist who keeps a keen eye on contemporary issues including Social Media, Education, Politics, Hindutva, Bharat (India) and Government Policies. He frequently voices his opinions unequivocally on various on social media platforms, portals and newspapers of eminence and repute like Firstpost, Financial Express, News18, NewsBharati, The Daily Guardian and many more. He is a prominent youth activist with strong knowledge of what he writes.