और कितने कमलेश तिवारी, किशन भरवाड, हर्षा की बलि चढ़ेगी इस्लामिक कट्टरवाद को?

इस पाशविक संस्कृति का सामना केवल संगठित होकर किया जा सकता है, इन जन आंदोलनों का दबाव सरकार, न्यायपालिका व संसद तक पहुँचता है.

NewsBharati    25-Feb-2022 12:02:34 PM   
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प्रतिवर्ष भारत में विभिन्न भाषाओँ में सैकड़ों फिल्में बनती हैं, उनमें से अधिकतर एक ही विषय को लेकर, थोडा घुमा-फिराकर थोड़े बहुत फेर बदल के साथ बनायीं जाती हैं. प्लाट ये होता है कि एक बस्ती है या फैक्ट्री है या शहर है या बंदरगाह है. वहां पर एक गुंडा है वो गुंडा सबसे हफ्ता वसूल करता है. जो भी उसके विरुद्ध बोलता है गुंडा उसे मारता है और बाकी सभी लोग गुंडे के डर की वजह से चुप रहते है और गुंडे की गुंडागर्दी चलती रहती है. फिर एक हीरो आता है, वो गुंडे के खिलाफ आवाज उठाता है, गुंडे से लड़ता है. इसे देख के बस्ती/ फैक्ट्री/ शहर/ बन्दरगाह वालो को भी हिम्मत आ जाती है और सब गुंडे के खिलाफ लड़ने के लिए खड़े हो जाते हैं. बुराई पर अच्छाई की जीत होती है और फिल्म समाप्त हो जाती है. किन्तु भारतीय समाज ने कभी भी फिल्मों के अंत हो सीरियसली लिया ही नहीं, वो कभी समाज के गुंडों के विरुद्ध एकजुट हुए ही नहीं.
 
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भारतीय फिल्मो और भारतीय समाज में एक बहुत बड़ा अंतर है. फिल्मो की तरह ही समाज में भी एक गुंडों का समाज है, बाकी पूरा समाज इन गुंडों के समाज से डर कर रहता है. जब भी भारतीय समाज में कोई हीरो आता है और इनके विरुद्ध आवाज उठाता है तब ये गुंडे अपनी आस्थाओ पर चोट लगने का बहाना बना कर उस हीरो को मार देते हैं और बाकी समाज फिल्मो की तरह एक जुट होने की बजाय और अधिक डर कर बैठ जाता है. समाज का यह हीरो उत्तर प्रदेश में कमलेश तिवारी के नाम पर मरता है, गुजरात में किशन भरवाड नाम से मरता है, झारखण्ड में रुपेश पांडे के नाम से मरता है और कभी कर्नाटक में हर्षा के नाम से, सूची बहुत लम्बी है. बाकी डरा हुआ समाज सोशल मीडिया पर कमेंट करके अपने कर्तव्यों की इति समझ लेता है. ये गुंडों का समाज जिसका नाम इस्लाम है वो 20% होने के बावजूद 80% हिन्दुओ को डरा के रखता है. इनका कोई तर्क, कोई विचार-विमर्श, कोई मानवीयता नहीं है. जो इस्लाम या मुसलमानों के अत्याचार के विरुद्ध बोले उसे जान से मार दो. मुसलमान हिन्दुओं के विरुद्ध, हिन्दुओं के भगवान के विरुद्ध एक मुहिम चलाता है परन्तु यदि उनके विरुद्ध कोई बोलता है तो उसका धड सर से जुदा. यदि हम व आप सोचते हैं कि सरकार हमको बचाएगी तो आप भुलावे में हैं. सरकार हर गली और नुक्कड़ पर आपकी रक्षा नहीं कर सकती. ये काम स्वयं समाज को जागृत व संगठित होकर करना होगा. ड्राइंग रूम की बहसों से ये काम नहीं होगा, सोशल मीडिया पर कमेंट करने से ये काम नहीं होगा, पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ या अजीत भारती के भाषण सुनने से ये काम नहीं होगा, और मेरी तरह इस प्रकार के आर्टिकल लिखने से भी कुछ नहीं होगा.

तो क्या करना होगा? इसके लिए आपको अपना कल शाम का अनुभव सुनाता हूँ.

कल शाम जब ऑफिस से लौटते हुए घर के पास वाले चौराहे पर पहुंचा तो वहां ट्रैफिक जाम लगा हुआ था. गाड़ियां फंसी हुयी थी क्योंकि उनके आगे कोई जुलूस चल रहा था. मुझे कुछ समझ में नहीं आया. मैंने ड्राईवर से कहा तुम धीरे-धीरे गाडी ले कर आओ मैं आगे जाके देखता हूँ कि क्या मामला है. मैं पैदल चल कर जुलूस तक पहुंचा. कुछ लोगो ने मशाल हाथ में ली हुयी थी. जुलूस के सबसे आगे एक बड़ा सा भगवा झंडा लहरा रहा था. एक एसयूवी गाडी के आगे एक बड़ा सा बैनर और 150-200 लोग. सभी के माथो पे चन्दन का लेप था और वो विभिन्न प्रकार के नारे लगा रहे थे. मैंने एक व्यक्ति से पूछा भाई साहब ये जुलूस किस बारे में हैं. उसने बताया कि हम लोग बजरंग दल से हैं और कर्नाटक में हाल ही में हिजाब विवाद में हुयी हिन्दू लड़के हर्षा की हत्या के विरोध में ये जुलूस और विरोध प्रदर्शन है. मुझे सुन कर अच्छा लगा कि चलो हमारी भी कोई आवाज है. वो लोग भारत माता की जय, वन्दे मातरम्, हर हर महादेव, हर्षा तेरा ये बलिदान याद रखेगा हिन्दुस्तान, जो नहीं है साथ में-चूड़ी पहने हाथ में जैसे नारे लगा रहे थे. मैंने भी कुछ दूर तक उनके साथ जुलूस में नारे लगाए. थोड़ी देर में मेरी गाडी जाम से निकल कर जुलूस के पास में आ गयी. मैं गाडी में बैठा और गाडी मुख्य सड़क को छोड़ कर मेरे घर की छोटी सड़क पर मुड गयी. गाडी में बैठने पर मुझे ऐसा अहसास हुआ जैसे मैं कोई चोरी कर के भाग रहा हूँ. जैसे चूड़ी पहने हाथ के नारे मेरे ही लिए थे.
 
 क्या मेरा कोई कर्तव्य नहीं? क्या जब मेरे परिवार में से किसी की हत्या होगी तभी मेरा खून खौलेगा. ड्राईवर मुझे छोड़ के चला गया. मैं घर में घुसा और अपना ऑफिस का बैग रखते हुए मैंने पत्नी से कहा कि सड़क पर हर्षा की हत्या के विरोध में बजरंग दल का एक जुलूस निकल रहा है मैं उसमे भाग लेने जा रहा हूँ. पत्नी ने एक बार भी मना नहीं किया क्योंकि हम दोनों के बीच इस हत्या पर पहले भी कई बार चर्चा हो चुकी थी. उसने सिर्फ इतना ही कहा कि अपना ध्यान रखना और सरकारी नौकरी होने के कारण किसी भी तरह की मीडिया कवरेज में नहीं आना. मैं तेज कदमो से चलते हुए मेन रोड तक आया तो जुलूस इतनी देर में काफी आगे जा चुका था. मैंने हल्की सी दौड़ लगाई और थोड़ी ही देर में जुलूस में शामिल हो गया. कोरोना से बचने के लिए और अपनी पहचान छुपाने के लिए मैंने मास्क पहन लिया. मैं जुलूस के साथ लगभग डेढ़ घंटा घूमता रहा और नारे लगाये. जुलूस एक सभा में परिवर्तित हुआ, संक्षिप्त सा भाषण हुआ, दो मिनट का मौन रखा गया और सभा विसर्जित हुयी. मन में बहुत संतोष था.

मेरी आत्मा जगी, मुझे तो जो ठीक लगा मैंने किया, लेकिन हम सब कब करेंगे? खतरा हमारी चौखट तक आ गया है. अब देर की तो बहुत देर हो जायेगी. पाकिस्तान, बांग्लादेश, कश्मीर, केरल, बंगाल हमारी आँखें खोलने के लिए काफी नहीं हैं? जब जीवन ही सुरक्षित नहीं रहेगा तो रूपये-पैसे और संपत्ति का क्या करेंगे.

इस पाशविक संस्कृति का सामना केवल संगठित होकर किया जा सकता है, इन जन आंदोलनों का दबाव सरकार, न्यायपालिका व संसद तक पहुँचता है. ऐसे विरोध प्रदर्शनों, श्रद्धांजलि के आयोजनों में अवश्य भाग लें, संख्या बल का प्रदर्शन ही इस बीमारी का उपचार है. हिन्दुओं के संगठनों को अपनी भागीदारी से बल प्रदान करें, उन्हें आर्थिक मदद दें, मंदिरों को मजबूत करें, पार्को और गली-मौहल्लो में सामूहिक रूप से विषयों पर चर्चा करें.

सरकारे देश की व्यवस्था चलाती हैं, लेकिन राष्ट्र का चारित्य समाज को बनाना पड़ता है. अपनी सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन ही उपाय है और यह करना ही पड़ेगा, सड़को पर उतरना ही पड़ेगा.

(एक सरकारी अधिकारी द्वारा वर्णित उदगारों पर आधारित)

Gopal Goswami

Gopal Goswami is into infrastructure development business since last 25 years in Surat, Gujarat. He has done his Masters in Public Administration and is currently pursuing a PhD in Management from National Institute of Technology (NIT}, Surat, Gujarat. He is an avid reader of Dharma and Indian culture, a strong believer of Vedic values of Sanatan and an active social worker.