राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी निभाने का संकल्प करके संघ में प्रवेश करने वाले स्वयंसेवकों की निष्ठा पर खड़ा है । जो लोग संघ का किसी समय मजाक उड़ाते थे या विरोध करते थे आज स्वयं सेवकों के शुद्ध चरित्र के कारण संघ से असीम प्रेम करने लगे हैं।भारत माता को परम वैभव पर पहुंचाने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तन, मन, धन अर्पित करने की परंपरा को निभाते हुए स्वयं सेवक इस ईश्वरीय कार्य में निरंतर लगे हुए हैं। तीन शब्दों के समुच्चय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना है - राष्ट्रीय, स्वयंसेवक और संघ।
राष्ट्रीय
प. पू. श्री गुरूजी के शब्दों में "जिस व्यक्ति की अपने देश, उसकी परंपराओं, उसके महापुरुषों, उसकी सुरक्षा एवं समृद्धि के प्रति अव्यभिचारि एवं एकान्तिक निष्ठा हो, जो देश के साथ पूर्ण रूप से भावनात्मक मूल्यों से जुड़ा हो वह राष्ट्रीय कहलाता है।" हिन्दू समाज के जीवन से राष्ट्रीयता हेतु सभी आवश्यक तत्वों की पूर्ति हो जाती है। राष्ट्र की संस्कृति राष्ट्र जीवन का प्राण होती है। अपने भारत की हिंदू संस्कृति ही हमारे राष्ट्र जीवन का प्राण है।
स्वयंसेवक
जो व्यक्ति स्वयं की प्रेरणा से राष्ट्र, समाज, देश, धर्म तथा संस्कृति की सेवा करने वाले व उसकी रक्षा कर उसकी अभिवृद्धी केलिये प्रामाणिकता तथा नि: स्वार्थ भाव से कार्य करने वाले हों वह ही स्वयंसेवक कहलाते हैं। स्वयंसेवक किसी व्यक्ति विशेष को गुरू न मान कर भगवा ध्वज को गुरू के रूप में स्वीकार करता है।स्वयंसेवकों के कृतिरूप दर्शन का मूल्यांकन करते समय संघ के गैर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। वैसे भी संघ द्वारा संचालित गतिविधियों का साक्षात् दर्शन ऐसे लोग कदाचित नहीं कर सकते, जो दलगत राजनीति के तंग जंजाल में फंसे हुए हैं ।
स्वयंसेवक से न्यूनतम अपेक्षाओं में नियमित रूप से प्रतिदिन निर्धारित वेष में निश्चित समय पर शाखा जाना ,अपने साथ कुछ मित्रों को ले कर शाखा पहुंचना, शाखा विकिर के बाद कुछ अन्य बंधुओं से संपर्क व संवाद करना और कुछ नवीन बंधुओं को शाखा से जोड़ना शामिल हैं।स्वयंसेवक स्व-देश धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा केलिये कटिबद्ध हैं। वह इस श्रद्धा को लेकर आगे बढ़ता है कि जहां आपत्तियों के पहाड़ टूटते हैं, वहीं पर अधिक से अधिक संघ कार्य हो सकेगा। वर्तमान वैश्विक महामारी कोरोना में सेवा भारती और संघ की प्रेरणा से शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रही विद्या भारती द्वारा समाज के वंचित वर्ग में किये जा रहे उल्लेखनीय कार्यो का उदाहरण सामने है।
संघ
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से बताया कि कर्म का जीवन में विशेष महत्व है। उन्होंने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा कि मनुष्य को हमेशा कर्मरत रहना चाहिए । संघ का शाब्दिक अर्थ संगठन या समुदाय है।संगठन समान विचार वाले, समान लक्ष्य को समर्पित, परस्पर आत्मीय भाव को समर्पित, परस्पर आत्मीय भाव वाले व्यक्तियों के निकट आने से बनता है। यह सभी एक ही पद्दति, रीति व पूर्ण समर्पण भाव से कार्य करते हैं। समाज सेवा में तत्पर, नित्य सिद्ध व चिर विश्वसनीय शक्ति ही संघ है।समाज सेवा में निस्वार्थ भाव से जुटना ही संघ है।संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है। संघ की प्रार्थना की छठी पंक्ति में कहा गया है - त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम। इस में त्वदीयाय कार्याय का अर्थ यही है कि " यह कार्य जिसे हम कर रहे हैं वह आपका ही कार्य है अर्थात हम ईश्वरीय कार्य करने का संकल्प लेते हैं। "
संघ व्यक्तिगत स्वार्थ की नहीं अपितु परमार्थ की बात करता है।संघ समाज को जाति, भाषा, प्रांत, पंथ, वर्ग आदि के भेदों से ऊपर उठाकर उस को सूत्रबद्ध एवं सुसंगठित करता है। संघ तत्व पूजक है क्योंकि तत्व सदैव ही स्थिर और अटल है। संघ में स्वयंसेवक आपस में मुंह से कुछ नहीं कहते बल्कि उनके अंत: करण बोलता है। इतनी आत्मीयता होती है कि केवल दृष्टि पात से ही वह अपने विचार आपस में एक दूसरे को समझा सकते हैं। जहाँ बार-बार कहने-सुनने के अवसर आ आते हों , वहां निश्चित रूप से यह समझना चाहिये कि संघ का ईश्वरीय काम नहीं हो रहा।विजय दशमी 2 अक्तूबर 2025 को संघ स्थापना के 100 वर्ष पूरे होंगे।
यह कोई कौतुक की बात नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक तरफ से प्रशंसा हो और दूसरी तरफ से संघ कार्य का विरोध हो। क्योंकि ईश्वरीय कार्यो में ऐसी बाधाएं आती ही हैं।स्वयंसेवकों की निष्ठा की नींव पर खड़ा हुआ संघ इस तरह के किसी भी विरोध की प्रवाह किये बिना उत्तरोतर प्रगति कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा।