कर्म के बारे में गीता का यह श्लोक काफी प्रेरणादायक एवं चर्चित है कि तुम्हें केवल कर्म करने का अधिकार है परंतु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो ! तुम ना तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो नहीं कर्म न करने में कभी आसक्त होओ ! अपने आपको कर्मों का कारण न मानने से तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म प्रकृति के गुणों सत, रज और तम के प्रभाव के अनुसार करता है !
मनुष्य में जिस गुड़ की प्रधानता होगी उसी के अनुसार वह कर्म करेगा ! कर्म की तीन श्रेणियां होती हैं कर्म, विक्रम तथा अकर्म ! कर्म में नित्य कर्म आपातकालीन तथा इच्छित कर्म होते हैं ! नित्य कर्म मनुष्य फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर करता है ! फल के लिए किए गए कर्म बंधन का कारण बनते हैं ऐसे कर्म अशुभ होते हैं ! फल से अनासक्त होकर किए गए कर्म निष्काम कर्म कहलाते हैं और यह मुक्ति प्रदान करने वाल होते हैं !
ईश्वर ने सृष्टिका निर्माण करते समय 84 लाख अलग-अलग योनियों को बनाया है परंतु इनमें विवेक केवल मनुष्य को ही प्रदान किया गया है ! जिसके द्वारा वह अपनी सोच के द्वारा कर्मों का निर्णय करके अपनी मुक्ति या मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सके ! परंतु यदि मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदान किए गए विवेक का उपयोग न करते हुए केवल स्वयं की इंद्रिय तृप्ति के लिए ही कर्म करता है तो वह स्वयं को पशु की श्रेणी में ले जाता है !क्योंकि पशु ही केवल अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए ही कर्म करता है !
प्रत्येक जीव में उसकी स्वयं की आत्मा के साथ ही ईश्वर तत्व भी उसी प्रकार विद्यमान रहता है जैसे एक पेड़ पर दो पक्षी होते हैं जिनमें एक फल खा रहा है और दूसरा उसे केवल देख रहा होता है ! जब मनुष्य स्वयं की इंद्रियों की तृप्ति के लिए पशु की तरह कर्म कर रहा होता है तो ईश्वर तत्व जो उसे देख रहा होता है वह उसे उसी के अनुसार पशु योनि अगले जन्म में प्रदान करता है ! इसी प्रकार जब मनुष्य सृष्टि के कल्याण के लिए कर्म फल को ईश्वर को अर्पित करते हुए कर्म करता है तो वह संसार के ऋण से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है ! इस प्रकार मनुष्य जन्म-- मृत्यु के आवागमन से मुक्त होकर ईश्वरीय परमधाम में शांति प्राप्त करता है !
इसी के संदर्भ में भगवान ने मानस में भी कहा है कि कर्म प्रधान विश्व कर राखा ! जो जस करहिं तशही फल चाखा !! इसको देखते हुए हर मनुष्य को अपने विवेक का उपयोग करते हुए अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करना चाहिए !और इस प्रकार निष्काम कर्म करते हुए संसार के लेनदेन से मुक्त होकर ईश्वर के परम धाम का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए !