संसार में 84 लाख योनियों हैं जिनमे ईश्वर जीव को मनुष्य योनि इस अभिप्राय से देता है कि वह विवेक के द्वारा संसार के जीवन मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परमब्रह्मा में विलीन होकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा ! जैसा कि सर्व विदित है संसार की सारी योनियों में विवेक केवल मनुष्य को ही प्राप्त होता है जिसके द्वारा वह अपने कर्मों पर नियंत्रण कर सकता है ! कर्म का प्रभाव दो प्रकार से होता है पहल! - करता की बुद्धि परअहंकार के रूप में दूसरा यदि करता निष्काम शुभ कर्म करता है तो उसे उच्च चेतना प्राप्त होकर धीरे-धीरे वह स्वयं को पहचान कर जीवन मरण के चक्र से मुक्त होने लगता है ! इससे देखा जा सकता है कि जीव की पहचान केवल उसके कर्मो से होती है !

मनुष्य संसार को ज्ञानेंद्रिय–आंख, नाक, कान, त्वचा और जीव के द्वारा अनुभव करता है ! इंद्रियांअनुभव की हुई चेतन! को मन तक पहुंचती है इसके बाद मन इंद्रिय तृप्ति के लिए उस वस्तु को कर्म इंद्रियों द्वारा प्राप्त करने की कोशिश करता है ! संबंधित वस्तु को जब वह प्राप्त करने में असफल होता है तब उसके अंदर क्रोध जागृत होता है ! जिसके बाद उसका विवेक समाप्त हो जाता हैऔर विवेक समाप्त होने पर उसका विनाश होना शुरु हो जाता है ! इसलिए भगवान ने गीता में कहा है कि यदि शरीर त्यागने से पूर्व कोई मनुष्य इंद्रियों के वेग को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ हो जाता है तो वह संसार में सुखी रहकर अंत में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है !
इंद्रियों के वेग को रोकने के लिए मन तथा कर्म पर निरंतर संयम का अभ्यास करना चाहिए ! इसके लिए पतंजलि काअष्टांग योग बहुत उपयुक्त माना गया है ! जिसके पहले दो कदम यम—---सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य ,असतेऔर अपरिग्रह तथा नियम–शॉच संतोष ,तप, स्वाध्यायऔर ईश्वर प्रणिधान है ! इसमें बताई हुई वीधियों द्वारा धीरे-धीरे मन पर नियंत्रण किया जाता है ! इस प्रकार नियंत्रित मन शुभ और निष्काम कर्म की तरफ प्रेरित होता है ! इसके बाद ही मनुष्य समाधि के द्वारा अपनी चेतना को परम चेतना में विलीन कर सकता है जिसे मोक्ष कहा जाता हैं !
इस प्रकार देखा जा सकता है कि मनुष्य जैसी बहुमूल्य योनि को प्राप्त करके कुछ मनुष्य इसका सदुपयोग करकेअपने जीवन के परम उद्देश्य भगवत प्राप्ति को प्राप्त कर लेते हैंऔर कुछअपनी इंद्रियों और अनियंत्रित मन के द्वारा बुरे कर्मों में लिप्त होकर फिर से 84 लाख योनि को चक्कर में पड़ जाते हैं !
इसको देखते हुए मानस में कहा गया है शुभ अरु अशुभ कर्म अनुसारी ईश देय फल हृदय विचारी !