षड्यंत्र या पलायन

NewsBharati    29-Sep-2020 11:03:16 AM   
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दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयाें के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, उस से धर्मान्तरित ईसाइयाें काे क्या लाभ ? अलग चर्च बनाने से होगा क्या ? अलग चर्च बनाने का विचार पराेसने वाले क्या आश्वस्त हैं कि वेटिकन भारतीय कैथाेलिक चर्च के संसाधनों का उनसे बँटवारा करने के लिए सहमत हाेगा ? अगर दलित ईसाइयों को कैथोलिक चर्च से अपने हिस्से के संसाधन न मिले, ताे नया चर्च क्या कर लेगा। अपनी संख्या बल बढ़ाने के खेल के अलावा फिर बचता ही, क्या है।
 
तमिलनाडु के दलित ईसाई संगठनों ने कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों के खिलाफ जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने की उनकी मांग पूरी नहीं हाेने पर भारत में एक नया चर्च शुरू करने की धमकी दी है। 5 सितंबर काे आयोजित एक बैठक में दलित कैथोलिक नेताओं ने कहा कि अगर वेटिकन ने दलित पादरियाें की उपेक्षा करने वाले बिशप चुनने की भेदभावपूर्ण प्रक्रिया को तुरंत नहीं हटाया, तो हम अपने खुद के भारतीय दलित कैथोलिक चर्च या भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार की घोषणा कर सकते हैं, बैठक में लगभग 30 वक्ताओं और 150 प्रतिनिधियाें ने भाग लिया था।
 
नेशनल कौंसिल ऑफ दलित क्रिश्चियन (NCDC) के संयोजक, फ्रैंकलिन सीजर थॉमस ने कहा कि "नया चर्च भारतीय कैथोलिक चर्च के जातिवादी नेतृत्व से दलित कैथोलिक ईसाइयों को अलग करेगा।" दलित नेताओं ने भारत में पोप फ्रांसिस के प्रतिनिधि / राजदूत से अपील की, कि वह बिशप के चुनाव काे भेदभाव मुक्त व पारदर्शी बनाए। नेशनल दलित क्रिश्चियन वॉच (NDCW) के राष्ट्रीय संयोजक विंसेंट मनोहरन ने कहा, कि वर्षों के विरोध के बावजूद दलित ईसाइयाें के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया है। दलित ईसाई चर्च में अपनी जगह के लिए लड़ रहे हैं और समाज में अनुसूचित जाति के दर्जे के लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे हैं।
 
दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयाें के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, जिसका लाभ कम नुकसान ज्यादा दिखाई दे रहा है। अगर भविष्य में कभी किसी षड्यंत्र के तहत ऐसा हाेता है ताे उस से धर्मान्तरित ईसाइयाें काे क्या लाभ ? कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है, इसलिए यह दलित चर्च ही है। भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार और सामाजिक हाशिए पर खड़े करोड़ों दलितों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है।
 
कैथोलिक चर्च के विशाल संसाधनों का लाभ दलित ईसाई इसलिए नहीं उठा पा रहे, कयाेंकि वह चर्च के चक्रव्यूह में फँस गए हैं। ईसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर है। धर्मान्तरित ईसाई पिछली कई शताब्दियों से चर्च के लिए अपना खून -पसीना बहा रहे हैं, और बदले में चर्च नेतृत्व से उन्हें मिला क्या? एक षड्यंत्र के तहत कैथोलिक बिशप कॉन्फ़्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया ने वर्ल्ड चर्च कौंसिल, वेटिकन और कई अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संगठनों के सहयाेग से पिछले पचास वर्षों से धर्मान्तरित ईसाइयाें काे अनुसूचित जातियाें की सूची में शामिल करवाने का तथाकथित आंदोलन चल रखा है।
 
एक तरफ वह हिंदू दलिताें काे अपने बाड़े में ला रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह इनके ईसाइयत में आते ही इन्हें दोबारा हिंदू दलिताें की सूची में शामिल करने की मांग करने लगता है, अगर उन्हें अनुसूचित जातियाें की श्रेणी में ही रखना है ताे फिर यह धर्मांतरण के नाम पर ऐसी धोखाधड़ी क्यों ? आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की ज़िम्मेदारी सरकार पर डालते हुए हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगा है।
 
कैथोलिक बिशप कॉन्फ़्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया के इस एजेंडे का खुला समर्थन कांग्रेस, वामपंथी, उतर और दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियाँ करती है। वह समय - समय पर चर्च की इस मांग काे हवा देते रहते हैं और बदले में दलित ईसाइयों का वोट उन्हें थाेक में मिलता रहता है। इस पूरे मामले में चर्च और समर्थन करने वाले राजनीतिक दल फायदे में हैं, नुकसान केवल दलित ईसाइयों का हो रहा है। चर्च के इस एक ऐजडें के चलते ईसाइयत में काेई सुधारवादी आंदाेलन खड़ा नहीं हाे पा रहा। यहां तक कि धर्मान्तरित ईसाइयों की हर समस्या का इसे एकमेव हल बताया जा रहा है।
 
ईसाइयत में 60 प्रतिशत से ज्यादा दलित ईसाई हैं, दलित ईसाई यानी हिंदू धर्म से ईसाइयत में आए लोग हैं। आजादी के बाद संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था। चर्च-नेतृत्व बड़ी चतुराई से धर्मांतरित ईसाइयों के विकास की बात करता है। उन्हें हिंदू दलितों से जोड़ देता है। उनकी जड़ें और समस्या एक बताता है। यह सच है कि वे इन समुदायों की जातिवादी व्यवस्था से विद्रोह कर ईसाइयत में आए हैं, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि वर्तमान में उनका गैर-ईसाई दलितों के साथ कोई खास रिश्ता नहीं रहा। यहां तक कि उनकी पूजा-पद्धति, प्रतीक, रहन-सहन और जीवन जीने का ढंग सब बदल गया है। उनकी समस्याओं और तकलीफों को गैर-ईसाई दलितों के समान नहीं देखा जा सकता।
 
धर्मांतरित ईसाई भारत के सबसे बड़े कैथोलिक चर्च में उपेक्षित व अपमानित स्थिति में हैं। कैथोलिक बिशप कॉन्फ़्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया क्या यह बता सकते हैं कि चर्च के इस विशाल साम्राज्य में दलित ईसाइयों की कितनी हिस्सेदारी है। यह आप एक तथ्य से समझ सकते हैं, भारत में कैथाेलिक चर्च के 4 कार्डिनल और 31 आर्कबिशप में से किसी की भी दलित पृष्ठभूमि नहीं है। इसी तरह 188 बिशपों में से केवल 11 दलित समुदाय से हैं। तमिलनाडु के 18 बिशपों में से केवल एक दलित पृष्ठभूमि से है।
 
कैथलिक चर्च ने 2016 में अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह माना, कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है। हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है। क्योंकि यहां भी वह इसका एकमेव हल धर्मान्तरित ईसाइयों काे हिंदू दलिताें की श्रेणी में रखने काे ही मानता है। 
 
पश्चिमी देशों के मुकाबले एशिया में ईसाइयत को बडी सफलता नहीं मिली है। जहां एशिया में ईसाइयत में दीक्षित होने वालों की संख्या कम है। वहीं यूरोप, अमेरिका एवं अफ्रीकी देशों में ईसाइयत का बोलबाला है। लेकिन डेढ हजार सालों में भी ईसाइयत यहां अपनी जड़े जमाने में कामयाब नहीं हो पायी। पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों के आवागमन के साथ ही भारत में ईसाइयत का विस्तार होने लगा।
 
अठारहवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में ही ईसाई मिशनरी दक्षिण भारत से आगे निकल कर उतर भारत में बड़े पैमाने पर अपना विस्तार करने में जुट गए थे, पंजाब में लाल बेगी (चूड़ा) समुदाय काे बहुत बड़े लेवल पर ईसाइयत में दीक्षित किया गया था। 1891- 1931 की जनगणना रिपोर्ट इसकी तस्दीक करती हैं। पंजाब में इतने बड़े धर्म परिवर्तन के पीछे अंग्रेज सरकार द्वारा लालबेगी समुदाय काे सेना में नाैकरी देना भी था। वर्तमान समय में पाकिस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक ईसाई लाल बेगी ही हैं। जिनकी सामाजिक - राजनीतिक स्थिति में काेई खास बदलाव नहीं आया है।
 
चर्च के पूरे साम्राज्य पर मुट्ठी भर कलर्जी वर्ग का एकाधिकार बन गया है। चर्चों के नीतिगत फैसले लेने में केवल 2% प्रतिशत कलर्जी वर्ग का दबाव है। 98% प्रतिशत लेइटी की कोई भूमिका ही नहीं है। स्वतंत्र भारत के पिछले सात दशकों में चर्च ने अरबों रुपयों की संपत्तियों को बेच दिया है। वह पैसा कहां गया, इसकी समाज को कोई जानकारी नही है। भारत में हजारों ऐसे चर्च हैं जहां प्रति वर्ष 2.5 मिलियन रुपये इकट्ठा होते हैं। चर्चों में इकट्ठा होने वाले इन रुपयों को गरीब ईसाइयों के विकास पर खर्च करने का कोई मॉडल ही नहीं है।
 
दरअसल पिछले सात दशक से चर्च ने धर्मान्तरित ईसाइयों के लिए विकास का कोई मॉडल ही नहीं अपनाया, उसने उन्हें अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में औज़ार की तरह इस्तेमाल किया है। आज ईसाई युवाओं में सामाजिक एवं राजनीतिक मामलाें काे लेकर काेई जागरूकता नहीं है। चर्च लीडर युवाओं के बीच सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन काे नहीं रख पा रहे है, केवल चर्च दर्शन से अवगत करा रहे है। इस कारण ही बड़ी संख्या में ईसाई युवा स्वतंत्र धार्मिक प्रचारक बन रहे हैं।
 
इस कारण तेजी से छाेटे - छाेटे चर्च भी खड़े हाे रहे हैं, ऐसे छाेटे- छाेटे स्वतंत्र चर्चो के पीछे एक पूरा अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क काम करता है, हाल ही में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों के अधिकतर चर्च तनाव के चलते बंद हाे गए थे या करवा दिए गए, इन बंद कराए गए चर्चों को दोबारा खुलवाने के लिए अमरीकी दूतावास आगे आया और उसने बंद पड़े सभी चर्च फिर से खुलवा दिए। स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं।
 
इनमें प्रचार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ईसाई संगठन बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों विशेषकर युवाओं काे भेजते हैं जिसका स्थानीय कलीसिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विदेश से आने वाले अनेक भारत काे ही अपनी कर्मभूमि मानकर यही रह जाते हैं। ओडिशा के ग्राहम स्टेंस और ग्लैडिस स्टेंस भी ऐसे ही मिशनरी थे (ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों के साथ जाे अमानवीय कृत्य हुआ उसकी काेई भी सभ्य समाज इजाज़त नहीं देता ) श्रीमती ग्लैडिस स्टेंस अपने अनुभव में लिखती हैं कि 1981 में ऑपरेशन माेबिलाइजेशन के तहत जब वह पंजाब, बिहार, ओडिशा की गाँव - गाँव की यात्रा कर रही थी, तभी ओडिशा में उनकी मुलाकात ग्राहम स्टेंस से हुई थी, हालांकि ऑस्ट्रेलिया में उन दाेनाें के घर तीस कि.मी. की दूरी पर ही थे, पर वह वहां कभी नहीं मिले थे।
 
भारत में जिस तेजी से छाेटे - छाेटे चर्च खड़े किए जा रहे हैं, वह कुछ- कुछ चीनी मॉडल जैसा ही है। चीन में ईसाई धर्म प्रचार करने पर पाबंदी है, वहां बड़े चर्च सरकारी नियंत्रण में काम करते है। ऐसे चर्च धर्म परिवर्तन पर काेई जाेर नहीं देते। अपना संख्या बल बढ़ाने के मकसद से मिशनरी सरकार से छिप कर घर कलीसियाएं चलाते है।
 
परंतु भारत में ऐसी काेई बात नहीं हैं, यहां मेन-लाइन के लाखाें चर्च है। जिन्हें धर्म प्रचार करने, अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों से जुड़े रहने व सहायता पाने और देश में अपने संस्थान चलाने की पूरी स्वतंत्रता है। इसके बावजूद अगर स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं, तो इस पर अवश्य ही विचार करने की जरूरत है। क्योंकि यह भारतीय ईसाइयों के हित्त में भी नही हैं।
 
भारतीय दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों की संघर्ष क्षमता काे ही कम करेगा। अलग चर्च क्यों बनाया जाए, पलायन का रास्ता क्याें ? जबकि वर्तमान में उनकी संख्या ज्यादा है, अलग चर्च बनाने से होगा क्या ? अलग चर्च बनाने का विचार पराेसने वाले क्या इस बात से आश्वस्त हैं कि वेटिकन भारतीय कैथाेलिक चर्च के संसाधनों का उनसे बँटवारा करने के लिए सहमत हाेगा। अगर दलित ईसाइयों को कैथोलिक चर्च से अपने हिस्से के संसाधन न मिले, ताे नया चर्च क्या कर लेगा। अपनी संख्या बल बढ़ाने के खेल के अलावा फिर बचता ही, क्या है।
 
जहां तक दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का सवाल है, इस पर आज के दिन भारतीय राजनीति में कोई सुगबुगाहट नहीं है। देश के उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को केंद्र सरकार पर छाेड़ दिया है। कांग्रेस सहित उन सभी राजनीतिक पार्टियों व नेताओं ने भारतीय चर्च की इस मांग से किनारा कर लिया है।
 
जाति के आधार पर ईसाइयों को नहीं बाँटा जाना चाहिए, बल्कि उनके कल्याण के लिए ऐसे समाधान खोजे जाएं जिनमें जाति-विहीन सिद्धांत का आधार तो बना ही रहे, आर्थिक रूप से पिछड़े ईसाइयों को भी लाभ हो। इसके लिए चर्च अपने विशेष अधिकारों के तहत चलाए जा रहे संस्थानों में डायवर्सिटी को लागू करे।

R L Francis

R.L. Francis, a Catholic Dalit, lead the Poor Christian Liberation Movement (PCLM), which wants Indian churches to serve Dalits rather than pass the buck to the government. The PCLM shares with Hindu nationalists concerns about conversion of the poor to Christianity. Francis has been writing on various social and contemporary issues.