हिजाब, हंगामा, साम्प्रदायिक अराजकता, अम्बेडकर और संविधान

जहाँ ओवैसी मुसलमानों को इस्लामिक पार्टी को मत देने को कहते हैं और मुस्लिम मतों के माध्यम से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर दावा प्रस्तुत करते हैं, तज़ामुल हुसैन कहते हैं - ‘जब तक भारत में आरक्षित चुनाव क्षेत्र रहेंगे, भारत में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भेद बना रहेगा।’

NewsBharati    14-Feb-2022 12:47:40 PM   
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कर्नाटक के एक कॉलेज से प्रारम्भ हुआ हिजाब की माँग पर प्रारम्भ हुआ एक आंदोलन, कांग्रेस और अन्य इस्लामिक राजनैतिक दलों के प्रश्रय से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन बन जाने के मार्ग में है। बाइबल पर हाथ धर के शपथ लेने वाले जो बाइडन के राष्ट्र से हल्की सुगबगाहट हुई है। एक संप्रभु राष्ट्र के नागरिकता संशोधन क़ानून और कृषि सुधार नियम के विरोध में राष्ट्र की चुनी हुई लोकतांत्रिक सत्ता को चुनौती देते धार्मिक आंदोलनों जैसा समर्थन अभी हिजाब आंदोलन को नहीं प्राप्त हुआ है जिसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे तालिबान में स्त्रियों पर नक़ाब थोपने के लिए हिंसा के कारण दुविधा या कनाडा में कोविड टीकाकरण के विरोध में ट्रक चालकों के प्रदर्शन के कारण अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों में आंतरिक दुविधा का होना, क्योंकि एक पश्चिमी श्वेत राष्ट्र के नागरिकों की असुविधा उन्हें अराजक प्रदर्शनों का समर्थन देने से रोक रही है अतः ऐसे ही समय पर पश्चिमी समाचारपत्रों एवं वैचारिक संगठनों के लिए भारत में तालिबानी सिद्धांतों के पक्ष में अराजकता का समर्थन कठिन है।
  
Hijab Row Ambekar Constitution

प्रयास हो रहे हैं कि एक मध्ययुगीन व्यवस्था, जिसमें महिलाओं को खुले में श्वास लेने का अधिकार नहीं हो, उसे स्त्रियों की नैसर्गिक इच्छा बता कर कर स्वीकार्य बताया जाए। प्रत्येक लोकतंत्र विरोधी आंदोलन की भाँति संविधान की सुरक्षा का पर्दा तो सदैव ही उपयोग किया गया है भले प्रत्येक हिंसा को उचित ठहराने के लिए जिसका एक मात्र उद्देश्य लोकतांत्रिक भारत, और उसमें भी शांतिप्रिय बहुसंख्यक हिंदू समाज को आतंकित करना रहा है। एक धर्म के रूप में इस्लाम इस पर क्या कहता है, इस पर मतैक्य नहीं है, मजलिस ए इत्तहादुल मुसलमीन अर्थात् मुसलमानों की एकता के लिए बना राजनैतिक दल इसमें कूदा ही है, और उसकी प्रवक्ता अपने जींस और टी शर्ट वाला अवतार त्याग कर हिजाब में टीवी बहसों में शामिल हो रही हैं। जिस इस्लाम में बुर्का की अनिवार्यता उनके लिए छह महीने पूर्व नहीं थी, उसमें सहसा ही हिजाब अनिवार्य हो गया है। कांग्रेस जो वर्तमान नेतृत्व में हिंदुत्व पर आक्रमण करने के लिए जानी जाती है, वह भी इसमें कूद गई है, और कांग्रेस के अधिवक्ता इसमें कूद कर सर्वोच्च न्यायालय पहुँच गए हैं। कांग्रेस इस इस्लामिक नीति के प्रोत्साहन में संविधान और अल्पसंख्यकों के नाम पर उतरी है। यह धार्मिक मतांधता का आवेग भिन्न भिन्न राज्यों में राजनैतिक दलों द्वारा पहुँचाया जा रहा है। भारत की न्याय व्यवस्था लोकप्रिय प्रवाहों में कई बार ऐसी बहती हुई दिखी है, कि संवैधानिक प्रश्नों पर भी इस्लामिक सिद्धांतों की सत्यता आंकने बैठ जाती है। तीन तलाक़ के मामले में न्यायालय ने सरकार और महिलाओं का पक्ष लिया परंतु उसमें भी उनका निर्णय, इस्लाम में तलाक़ ए बिद्दत की अनुमति ना होने की भूमिका पर आधारित था। तीन तलाक़ की स्वीकृति इस्लाम में ना होने को आधार ले कर न्यायालय ने उस पर रोक लगाने की आज्ञा दी थी। प्रश्न यह भी उठता है कि यदि धर्म में इसकी अनुमति हो भी तो क्या वर्तमान संविधान इसकी अनुमति देता है?

वर्तमान में क्या उचित है, इसे जानने के लिए सातवीं शताब्दी में एक विदेशी भूमि में जाने से अधिक आवश्यक है कि अपने ही देश का स्वतंत्र इतिहास देखें। आधुनिक बुद्धिजीवी जैसे तृणमूल कांग्रेस के पवन वर्मा इस प्रश्न को आधुनिकता के तर्क पर ना तौल कर, अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक के परिपेक्ष्य में देखना चाहते हैं। ख़ालिस्तानी आतंकवादी संस्था सिख फ़ॉर जस्टिस इस में कूद पड़ी है। आज असदुद्दीन ओवैसी धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार हो गए हैं और मुसलमानों की लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की माँग लगभग ले कर बहस करते हैं, प्रत्येक इस्लामिक मुद्दे को अल्पसंख्यक अधिकार के नाम पर उठाते हैं। २६ मई १९४९ को जब इस विषय पर संविधान समिति में चर्चा हुई थी तो बिहार के तजामुल हुसैन ने कहा था -

‘पृथक चुनाव क्षेत्र भारत पर अभिशाप है। हमें ना तो (धार्मिक) आरक्षण की आवश्यकता है ना ही अलग चुनाव क्षेत्र की। हम भारतीय हैं और भारतीय ही रहेंगे। अल्पसंख्यक शब्द ही ब्रिटिश आविष्कार है।ब्रिटिश चले गए हैं और अल्पसंख्यक शब्द भी उनके साथ चला जाना चाहिए। इस शब्द को शब्दकोश से हटा दीजिए।’

जहाँ ओवैसी मुसलमानों को इस्लामिक पार्टी को मत देने को कहते हैं और मुस्लिम मतों के माध्यम से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर दावा प्रस्तुत करते हैं, तज़ामुल हुसैन कहते हैं - ‘जब तक भारत में आरक्षित चुनाव क्षेत्र रहेंगे, भारत में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भेद बना रहेगा।’ मुहम्मद इस्माइल खान जिन्होंने पहले यह माँग रखी थी, उन्होंने भी बाद में कहा - ‘मैं बहुसंख्यक समुदाय के नेताओं का धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उन्होंने धर्म के आधार पर चुनाव क्षेत्र की माँग को माना किया क्योंकि यह साम्प्रदायिकता की जड़ बन सकता था। मुसलमानों को बहुसंख्यकों पर विश्वास करना होगा।’ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसी बहस में आगे कहा था - ‘किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए यह अनुचित है वह विश्व और बहुसंख्यकों को यह संदेश दे - हम आपसे पृथक रहना चाहते हैं, हमें आप पर पर विश्वास नहीं है, हम अपना आपस में ही ध्यान रखेंगे और हमें विशेष सुरक्षा के प्रावधान चाहिए।’

यह विडम्बना ही है कि धार्मिक कट्टरता और मतांधता उसी लोकतांत्रिक अधिकार का हवाला देती है जिसकी नींव वह खोदना चाहती है और अलोकतातंत्रिक उद्देश्यों को अनजान परंतु सरल हृदय लोगों की स्वीकार्यता दिलाने के लिए डॉक्टर अम्बेडकर का नाम लेती है। जिस संविधान के आर्टिकल २५ में धार्मिक प्रचार एवं अनुपालन की स्वतंत्रता का बार बार हवाला दे कर सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में धार्मिक वर्चस्व स्थापित करने के इस रण को उचित ठहराया जा रहा है, संविधान के उसी अनुच्छेद के अंत में डॉक्टर अम्बेडकर द्वारा ही इस स्वतंत्रता की सीमाएँ स्थापित की गयी थी, उसे छुपा दिया जाता है।

३ दिसम्बर १९४८ को श्री तज़ामुल हुसैन एक और संविधान संशोधन ले कर आए थे जिसमें उन्होंने कहा था कि धर्म के प्रकट चिन्हों के प्रदर्शन की अनुमति ना हो। इस पर मौलाना हसरत मोहानी ने उनपर कटाक्ष किया था कि श्री हुसैन को अपना नाम बदल लेना चाहिए, क्योंकि उस से उनका धर्म प्रकट होता है। श्री हुसैन ने उत्तर में कहा था कि आप ये संशोधन स्वीकार कर लें, मैं नाम बदल लूँगा।’ मुझे संदेह है कि ओसामा बिन लादेन के हमशक्ल को ले कर चुनाव प्रचार करने वाले आधुनिक नेताओं को इस वार्ता का मर्म और हुसैन साहब के साहस की समझ होगी। यह संशोधन समिति में स्वीकृत नहीं हुआ था। असदुद्दीन ओवैसी और राहुल गांधी जैसे मुस्लिम कट्टरपंथी नेता आम जनता की संविधान के प्रति अनभिज्ञता का लाभ उठा कर आर्टिकल २५ (१) को अप्रतिबंधित बताते हैं और उस संशोधन को छुपा जाते हैं जो डॉक्टर अम्बेडकर ७ दिसम्बर १९४८ को ले कर आए थे।

७ दिसम्बर १९४८ को डॉक्टर अम्बेडकर संविधान समिति में आर्टिकल २५ में जोड़ते हैं कि अपने धर्म को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य की आवश्यकताओं तक सीमित है। डॉक्टर अम्बेडकर आगे ये भी कहते हैं कि यह प्रतिबंध आर्टिकल १९ और आर्टिकल २० तक जाता है। वो कहते हैं कि इन प्रतिबंधों के अनुसार अपने नियम निर्धारित करने के लिए शासन संविधान के प्रतिबंधों से स्वतंत्र रहेगा। धार्मिक विषयों में आर्टिकल २५ की आड़ लेने का प्रयास अक्सर किया गया है १९५० के पश्चात, और न्यायपालिका निरंतर संविधान समिति के विचारों को समक्ष रख कर निर्णय लेती रही है। १९८४ और २००४ में आनंदमार्गियों के तांडव के आयोजन को निषेध किया गया, क्योंकि यह पुरातन परम्परा ना हो कर, इस पंथ के संस्थापक के द्वारा १९६६ में लाई गई थी। यही सिद्धांत १९८४ में ग़ुलाम अब्बास बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के मामले में भी सार्वजनिक व्यवस्था को सर्वोपरि मानते हुए ध्यान में रखा गया था। मद्रास उच्च न्यायालय ने २००४ में मतदान के संदर्भ में हिजाब के ही विषय में संविधान की सीमाओं इसी सिद्धांत के अनुरूप को साम्प्रदायिक रूढ़ियों से ऊपर रखा था।

भारत में बीते कुछ समय में परिस्थितियाँ बदली अवश्य है, परंतु आज भी मीडिया जब मुस्लिम वोट बैंक की बात करता है तो अम्बेडकर के शब्द उसमें परिलक्षित होते हैं जब वे लिखते हैं कि मुस्लिम राजनीति भारत में एक गैगस्टर रणनीति पर चल रही है और समस्या इस में यह हो रही है कि इस के विरोध में हिंदुओं का विरोध भी संगठित हो रहा है (अम्बेडकर, पाकिस्तान या भारत का विभाजन)। इसमें अम्बेडकर (अध्याय: पाकिस्तान - साम्प्रदायिक आक्रामकता) लिखते हैं कि मुस्लिम इस्लामिक देशों में गोहत्या को अपने धर्म का भाग नहीं मानते ना ही संगीत के विरोध को, परंतु भारत में अपने वर्चस्व के उदाहरण के रूप में इन सिद्धांतों का उपयोग उन्हें इस्लामिक अनिवार्यता बता कर करते हैं। कांग्रेस ने अम्बेडकर को चुनाव में हरा कर हाशिए पर भेज दिया, सावरकर को गांधी हत्या में लपेट कर और हिंदू विचारों को उस हत्या से जोड़ कर, सदा हिंसा-विरोधी हिंदू मानस को विकल्पहीन राजनैतिक परिदृश्य दिया।

सम्भवतः यदि आपातकाल में जनमानस का क्षोभ ना उभरा होता तो भारत मात्र एक दल का ही लोकतंत्र बना रह जाता, जिसमें बहुसंख्यक समाज का कोई स्वर ही नहीं था। परंतु तथ्य यह है कि जब नौंवी शताब्दी में इस्लाम की जन्मस्थली, मिस्र की अल -अज़हर यूनिवर्सिटी आज नक़ाब पर रोक लगा देती है, तो भारतीय नेताओं का हिजाब के प्रति यह अचानक चुनाव काल में उठा स्नेह अम्बेडकर के द्वारा इंगित की गई उसी साम्प्रदायिक आक्रामकता के सिद्धांत का प्रतिबिम्ब ही है और ऐसी राजनीति के दुष्परिणाम अफ़ग़ानिस्तान से ले कर ईरान और सीरिया तक देखे गए हैं। मामला अब न्यायालय में है और आशा है की न्यायपालिका वैश्विक लोकप्रियता की चिंताओं से हट कर निर्णय ले सकेगी और संविधान निर्माताओं की भावना पर ध्यान देगी।ऐसी समस्याओं के निवारण के लिए संविधान की निर्देशित नीतियों में सरकार पर बाध्य समान नागरिक संहिता आवश्यक हो चली है। लम्बे समय धर्मनिरपेक्षता की छद्म परिभाषा से जूझता भारतीय मीडिया इस समान नागरिक संहिता की दिन प्रतिदिन अपरिहार्य होती माँग को भारतीय जनता पार्टी की चुनावी रणनीति से जोड़ कर भले ही देख रहा हो, तथ्य यह है कि जिन बाबा साहेब के संविधान का नाम ले ले कर भारत को विपक्ष दूसरे विभाजन की ओर घसीटना चाहता है, उसी संविधान के अनुच्छेद ४४ के अंतर्गत समान नागरिक आचार संहिता की स्थापना सरकार के निर्धारित दायित्व के रूप में लिखित है। इसका विरोध करना राष्ट्र्विरोधी, अम्बेडकर विरोधी और संविधान विरोधी होना है। जिस प्रकार की विदेशी शक्तियाँ भारत को अस्थिर करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं, उसे देखते हुए इसका शीघ्र लागू होना भारतीय लोकतंत्र के लिए भी आवश्यक है। एक समान नियम के अभाव में भारत को धर्म के नाम पर कट्टरता के अंधकार युग में घसीटने का प्रयास एक मूल्यहीन राजनीति के द्वारा निरंतर किया जाता रहेगा। श्री तज़ामुल हुसैन, कन्हैया लाल मुंशी, सरदार पटेल, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और स्वयं अम्बेडकर ने विभाजन के दंश से उभरते भारत में ना ही ओवैसी जैसे राजनेताओं के भारतीय राजनीति के मुख्यधारा में आ जाने की कल्पना की होगी ना ही कांग्रेस के ऐसे इस्लामिक और विभाजनकारी दल के रूप में पतन की, वरना वे समान आचार संहिता तभी लागू कर जाते।
 
 
 (यह लेख https://hindi.swarajyamag.com/ पर पूर्वप्रकाशित रह चूका है )
 

Saket Suryesh

A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Saket writes in Hindi and English. He writes on socio-political matters and routinely writes Hindi satire in print and online. His Hindi Satire "Ganjhon Ki Goshthi" is on Amazon best-sellers. He has also trranslated the Autobiography of Legendary revolutionary Ram Prasad Bismil in English,  released as "The Revolitionary".